दर्द कटते पेड़ का...




जब मैं कटा...
आरी,रस्सी,कुछ मजदूर
एक ठेकेदार,कुछ तमासबीन
ये थे मेरे चारों ओर,
क्यूँ ???
अरे यार क्यूँकि मैं काटा जा रहा था !!!
एक ने ठेकेदार से वजह पूछी,
रौब दी मुछों में और ताव दे कर कहा,
देख नहीं रहे हो सड़क बन रही है |
भारत निर्माण की ओर कदम है हमारा,
हर गाँव में सड़क पहुचें संकल्प है हमारा ||
पर ये पेड़ सड़क के दायरे में तो नहीं,
फिर क्या वजह है इसे काटने की?
पूछा दूसरे आदमी ने
तू ज्यादा जानता है या सरकार???
सरकार को ये दायरे में लगा तो काट रही है |
पर इस की तो लोग पूजा करते हैं,
खलबली मची कुछ लोगों के बीच,
ठेकेदार बोला सरकार किसी से नहीं डरती
भगवान् से भी नहीं
पर झुला टंगता है बच्चों का इस में,
किसी ने सुझाया |
तो ठेकेदार ने बताया,
क्या करेंगे बच्चे खेल के,
ओपनिग तो सचिन,सहवाग और उन के बच्चों ने ही करनी है,
और इन झूलों पर खेल कर बच्चों ने सिर्फ कमीजें गन्दी करनी हैं |
लोगों के सारे खाने पस्त थे, ठेकेदार भईया मस्त थे |
कहा मजदूरों को काटो इसे चलाओ आरी,
अब सिर्फ है पेड़ काटने की बारी,
घंटे दो घंटे में मैं धराशाही हो गया,
कई हिस्सों में काट कर मुझे वहाँ से ले गये |
मजदूरों ने रस्सी और आरी उठाई,
ठेकेदार ने फिर ताव दिया मुछों पे,
और गाड़ी में बैठ चले गये|
पर लोगों का साथी पेड़ अतीत में खो गया,
किसी के भगवान् छीने था,
किसी का छिना था दोस्त,
खैर ये तो सिर्फ थी आज की बात थी
वक़्त बदला दुनिया बदली,
ना अब भगवान् की जरुरत है ना दोस्त की
मेरे खत्म होती ही जज्बात और रिश्ता
सिर्फ लोगों की यादों में बाकी है|

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नए सवाल


मैं
बिमल
भटकता
 हूँ
दरबदर
अपने
सवालों
का
जबाब
खोजने
के
लिए
नहीं
बल्कि
नए
सवाल
खोज
रहा
हूँ
जो
पुराने
सवालों
के
जवाब
देने
में
समर्थ
हों....
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मैं पुरुष हूँ...





मैं पुरुष हूँ...
मैं कुचलता हूँ हर इक आवाज़ को जो मेरे खिलाफ उठती है...
मैं नहीं चाहता कभी समानता का अधिकार...
क्यूँ चाहूँ मैं???
कि चरणों की दासी मेरे बराबर पे आये...
क्यूँ मैं बरसों से आ रही परम्परा को तोडू   
क्या द्रोपदी... क्या सीता....
मैंने सब को हैं रौंदा....
मैंने ही छल कर के अहिल्या की अस्मिता से खेला...
मैं ही इंद्र हूँ....हूँ मैं ही दुस्सासन...
हूँ मैं ही दुर्योधन आज का..मैं ही था कल का रावण....
नहीं चाहता किसी औरत से हारना....
बर्दाश नहीं अपने बेटे के अलावा हार खुद की किसी और से...
नहीं चाहता मुझे से ऊपर कोई औरत हो...
औरत....
जुती थी...है...और रहेगी....
कुछ भी कर लो....
कर लो बड़ी बड़ी बातें.....
मैं कुछ भी करूँ....हमेशा अपनी बीवी का भगवान् ही रहूँगा....
क्यूंकि मैं पुरुष हूँ...
औरत....
कमजोर..बुस्द्दिल....बेबस...
फोटोग्राफर की फोटो में बेबस...
कवि की कल्पना में बेबस....
पेंटर के रंगों में बेबस....
बेबस थी...है....और रहेगी....
मर जाएँ हजारों दामिनियाँ....
मेरा अहम् नहीं डिगने वाला....
क्यूंकि मैं पुरुष हूँ....
मैं ही हूँ पितृ प्रधान समाज के कर्ताधर्ता....
मैं ही हूँ...मैं ही हूँ..मैं ही हूँ....
रातों रात बदल नहीं सकता कुछ भी....
चूड़ियों की खनखनाहट को जो सहारा चाहिए वो मैं ही हूँ....
हां तुझे नौं दिन पूज सकता हूँ पर साल भर जूते की नोक पर ही रखूँगा...
क्यूंकि मैं पुरुष हूँ....पुरुष....
ताकतवर....श्रेष्ठ....सर्वश्रेष्ठ...        
  

                  
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तेरा अस्तित्वा तेरी क्या पहचान है ???


है सुलगता कौन सा
  वो सवाल है,
है ये उफनता जोश या सिर्फ बवाल है,
कौन सी इबारत वो बेजा लड़की लिख गयी,
जिस से  पुरे देश में ये भूचाल है ||

था क्या ये अन्याय पहला दुनिया में?
फिर क्यूँ जनता इतनी क्यूँ हैरान हैं?
अब चिंगारियां क्यूँ शोला आज बनने लगी?
क्यूँ सड़क पर जनता आज परेशान है||

सुनी नहीं कहानी किसी ने अहिल्या की,  
क्यूँ आज भी इरोम की गली सुनसान है,  
है नया कुछ भी नहीं इस दुनिया में

क्या तू कथा द्रौपदी से अनजान है||

पितृ सत्ता नहीं है कोई पहाड़ी गावं 
  जिस की अब न कोई पहचान है
  पितृ सत्ता ये तो वो वट वृक्ष है...
जो हर पल छीनता नारी की हर पहचान है||

जो लिख गया सो लिख गया,
क्यूँ ढूँढती तू नारी अपनी पहचान है,
हजारों दामिनियाँ मर गयी
रूह उन की अब भी न्याय से अनजान है||

कब तक सुलगेगा ये सवाल 
  नारी आज भी  तेरा अस्तित्वा तेरी क्या पहचान है ??? 
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