फिर भी क्या सुनेंगे लोग मुझे ?


खड़े हो कर सबके सामने बोलने के लिए हौसला चाहिए, 
आम भीड़ में बोलने के लिए शब्दों का जाल चाहिए,
ख़ास भीड़ में बोलने के लिए हुनर चाहिए,
कोई कहता है पढो पुराने और नए लोगों की लिखी बातें, 
उन का नजरिया सुनो और कहो उन की कही बातें,
और इन बातों से हर वक्त डर सा जाता हूँ मैं, 
कि कहीं वो बात मुझ में है या नहीं, 
कहीं वो जज्बात मुझ में है या नहीं, 
क्यों कहूँ मैं नजरिया किसी और का, 
क्यों कहूँ मैं अनुभव किसी और का,
मैंने नहीं पढ़ा किसी और को ,
मैंने नहीं सुना किसी और का लिखा,
सिर्फ थोडा घूमा और बतियाया है कुछ लोगों से 
पर  फिर भी क्या सुनेंगे लोग मुझे ?
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