क्या हम वाकई सुरक्षित हैं न्याय के दरवाज़े तक पहुँचने के लिए ? :: प्रधान न्यायाधीश के नाम ख़त

माननीय
             प्रधान न्यायाधीश
              सर्वोच्च न्यायालय
                    भारत
पहला ख़त आप को लिख रहा हूँ और बहुत मजबूर हो कर लिख रहा हूँ | मैं रिसर्च प्रोग्राम का  हिस्सा बन के भारत के गांवों को करीब से देख रहा हूँ, समझ रहा हूँ | भारत के विकास के लिए चल रही योजनाओं को करीब से जान रहा हूँ कि कैसे योजनायें बनती है कैसे जमीन पर पहुँचती हैं और उस के फेल पास होने के क्या क्या कारण होते हैं ? इस दौरान मेरे पास कुछ एक सरकारी स्कूल भी हैं जहाँ के बच्चों को मैं पढ़ता भी हूँ और हर सरकारी कार्यक्रम चाहते न चाहते हुए भी जोर शोर से मनाता हूँ | ये कार्यक्रम मैं सिर्फ इस लिए नहीं मनाता क्यूँकी ये सरकारी आदेश होते हैं बल्कि इन कार्यक्रमों का अच्छा पक्ष बच्चों को समझाता हूँ | आज मुझ से एक छोटे से बच्चे ने सवाल किया कि गुरूजी कल कुछ लोगों को कोर्ट में वकीलों ने मारा किसी ने उन्हें क्यों नहीं रोका ?

मेरे पास जितना जवाब था मैंने उसे दिया पर उस के बाद मेरे मन में आप से पूछने के लिए कई सवाल खड़े हो गये | क्या न्याय पाने की एक मात्र जगह भी सुरक्षित नहीं है ? हम पुलिस पर विश्वास नहीं करते मिडिया पर विश्वास नहीं करते ,सरकार पर विश्वास नहीं करते ,हम सरकारी गैर सरकारी संस्थाओं पर विश्वास नहीं करते, क्यूँकी सबने हमे ठगा है हमें धता दिखाया है हम ने इन सबके खिलाफ धरने दिए हैं ,कैंडल मार्च किये हैं ,जुलुस निकाले हैं ,गिरफ्तारियां दी हैं ,लाठियां खाई हैं क्यूँकी हमें विश्वास था कि हम सब सस्थाओं के खिलाफ हो लें पर जब हम न्याय के लिए आप के पास आयेंगे तो आप हमारी आवाज़ जरुर सुनेंगे हमें कम से कम बाहर नहीं पर न्याय के परिसर में बेख़ौफ़ होकर अपनी बात रख पाएंगे |

मेरी नाराजगी आज आप से है  मेरी नाराजगी सच में आप से है कि कैसे आप के परिसर में पत्रकारों को कल पीटा गया | मैं ये बात एक पत्रकारिता के छात्र होने के नाते नहीं कह रहा बल्कि एक आम आदमी के नाते कह रहा हूँ कि मुझे आप ही बताओ कि मैं सुरक्षित कहाँ हूँ ?

क्या मैं अपने देश में सुरक्षित हूँ ? मैं अगर भारत की किसी योजना पर अपनी टिप्पणी देता हूँ तो मैं देश द्रोही हो जाता हूँ ,मेरी माँ बहिन दोस्त इस देश में अपनी मर्ज़ी से जी नहीं सकती, अपनी मर्ज़ी के कपडे नहीं पहन सकती, अपनी बात नहीं रख सकती अपनी मर्ज़ी से बाहर नहीं जा सकती शादी नहीं कर सकती | हम तो अपनी लैंगिकता को भी अपनी इच्छानुसार नहीं रख सकते | फिल्मों, साहित्यों, कलाओं, वाद विवाद के केन्द्रों पर प्रतिबन्ध लग रहे हैं | मैं चाहते न चाहते हुए भी धर्म जात की राजनीति पर मजबूर हो रहा हूँ | कहने को मैं आज़ाद भारत में पैदा हुआ और शिशु /विद्या मंदिर के स्कूल में पढ़ते हुए अपने देश के बड़े गौरव गान सुने हैं मैंने पर वहां से निकलने के बाद जब मैं उसे धरातल पर खोजता हूँ तो मुझे वह कहीं नहीं मिलता और सिर्फ यह दिखता है कि देश और राष्ट्र वाद के नाम पर जहर बो रहे हैं और जहर काट रहे हैं |

मैं कभी विरोध और मुर्दाबाद की राजनीति का समर्थक नहीं रहा मैं हमेशा जमीन पर लोगों के साथ खड़े होकर स्थानीय जवाबों का समर्थक रहा हूँ और हमेशा न्याय पर विश्वास रखने वाला रहा हूँ पर आप ही बताइए मैं कैसे भीड़ में खड़े आम आदमी को ये विश्वास दिलाऊ कि हमारे न्यायालयों में सब की सुनवाई होती है ? मैं कैसे लोगों से बात कहूँ कि जब सारे दरवाज़े बंद हो जाएँ तब भी न्याय की रौशनी बाकी है ? कोर्ट में पीटे जाने के बाद मन में सवाल जरुर उठ रहा है कि क्या हम वाकई सुरक्षित हैं न्याय के दरवाज़े तक पहुँचने के लिए ? और ये सवाल सिर्फ मेरे दिमाग में है इस पर मुझे बहुत बड़ा शक हैं |

सबसे बुरा तक होता है जब आवाजें मरनी शुरू होती है और विचारों का दमन शुरू होता है और अगर आज अगर न्याय के परिसर में भी ये सब शुरू हो गया तो फिर कैसे आज़ादी ? कैसे संस्कृति ? और कैसा राष्ट्रवाद ?

मेरी राजनैतिक समझ बिल्कुल नहीं है तो किसी मुद्दे पर बात नहीं करूँगा बस माननीय न्यायाधीश महोदय भीड़ में खड़े आखिरी इंसान के लिए आप तक पहुँचने तक का रास्ता बंद हो ऐसी नौबत मत आने दीजियेगा क्यूँकी उस के लिए न्यायालय ही इन्साफ की पहली और आखिरी सीढि हैं | मेरी लिखी बातों में कोई गलती हो तो मुझे माफ़ करें पर आप इन बातों का सीधे संज्ञान लेकर तथा उचित कदम उठा कर न्याय पर लोगों के विश्वास को बचा सकते हैं |   
आप पर विश्वास रखने वाला
बिमल रतूड़ी        

  

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फिर भी क्या सुनेंगे लोग मुझे ?


खड़े हो कर सबके सामने बोलने के लिए हौसला चाहिए, 
आम भीड़ में बोलने के लिए शब्दों का जाल चाहिए,
ख़ास भीड़ में बोलने के लिए हुनर चाहिए,
कोई कहता है पढो पुराने और नए लोगों की लिखी बातें, 
उन का नजरिया सुनो और कहो उन की कही बातें,
और इन बातों से हर वक्त डर सा जाता हूँ मैं, 
कि कहीं वो बात मुझ में है या नहीं, 
कहीं वो जज्बात मुझ में है या नहीं, 
क्यों कहूँ मैं नजरिया किसी और का, 
क्यों कहूँ मैं अनुभव किसी और का,
मैंने नहीं पढ़ा किसी और को ,
मैंने नहीं सुना किसी और का लिखा,
सिर्फ थोडा घूमा और बतियाया है कुछ लोगों से 
पर  फिर भी क्या सुनेंगे लोग मुझे ?
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