बिना नाम के रिश्ते की आज़ादी


चाय की चुस्कियों के साथ मैंने उस से सवालिया हिसाब से कहा सुनो...
हाँ बोलो ... उस ने भी अपने लबों से चाय के कप को हटा कर कहा
मैंने महसूस किया है कि तुम ये जाहिर नहीं होने देती कि हम दोनों आपस में जानते हैं एक दूजे को ...मैंने चाय की दूसरी चुस्की लेते हुए पूछा ...
हाँ तो ... क्या जरुरी है सब को बताना ? उस ने सवाल किया
क्यूँ जरुरी नहीं है सब को बताना ? मैंने सवाल का जवाब सवाल में दिया
बताओ तो क्यूँ जरुरी है सब को बताना ? और हो क्या जायेगा ये बताने से ? उस ने शांत तरीके से चाय की चुस्कियों के साथ सवाल दागा ...
अरे यार क्या बात कर रही हो ? बताओ तो क्या हो जायेगा सब कुछ छिपाने से ? मैंने सवाल पे फिर सवाल किया
अच्छा तो सुनो .... तुम्हारा दायरा बहुत बड़ा है ...तुम मानो न मानो पर तुम्हें जानने वाले काफी है ....और मैं तुम्हारे साथ जुड़ कर ....चाहे रिश्ता हमारा जो कुछ भी हो...या न भी हो... इसे लोगों के मुहँ में पान की तरह नहीं परोसना चाहती ... मैं नहीं चाहती कि लोग इसे किस्से कहानियों में बदल दें... क्यूंकि मुझे पता है कि तुम तो कल नई कहानी का किरदार बन जाओगे पर मुझे जूझना पड़ेगा इन्हीं बासी हो चुकी कहानियों संग...
तुम्हें भरोसा नहीं है मुझ पर ? क्या मैं हमारी दोस्ती को यूँ छोड़ के चला जाऊंगा ?? मैंने पूछा
भरोसा मुझे खुद से ज्यादा तुम पर है पर डर मुझे उन लोगों का ज्यादा है जो घूमते हैं हमारे आसपास ...क्यूंकि मैं सच में क्लास की कोने वाली सीट पर बैठने वाली बच्ची रही हूँ जिसे अधिकतर लोग ध्यान नहीं देते और मैं खुश हूँ उस में ही...मैं आगे की सीट पर आ कर भीड़ का सामना नहीं करना चाहती.... मैं सवाल जवाब के दायरों से दूर अपनी ज़िन्दगी बसाना चाहती हूँ....और ये तुम्हारे साथ बिल्कुल भी पॉसिबल नहीं है ...मैं तुम्हारी कहानियों संग कैद नहीं होना चाहती ..
क्या मैं सब कुछ छोड़ दूँ ? मैंने उस को प्यार से गले लगा कर पूछा ...
नहीं...बिल्कुल नहीं... तुम मेरी वजह से बदल जाओ..इस का बोझ नहीं सह पाऊँगी... जो है जैसा है...जहाँ तक है..बस चलने दो इसे... न कोई नाम दो... न कुछ चाहो इस से..ना कुछ खोवो इस के लिए...बस इसे यूँ ही रखने दो..यूँ ही... .. उस ने मुझ पर अपनी जकडन को और मजबूत करते हुए कहा....
ये सवाल जवाब का दौर ख़त्म हो चुका था... न जाने कौन आज़ाद हुआ और कौन कैद हो गया ..
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