मेरे साफ़ कमरे की कहानी



कम्बल के ऊपर गिरा नेल कटर,
खिड़की की दीवारों पर चिपके खीरे के बीज,
परदे की राड पे लटके टूटे हुक,
खिड़की पर चिपकी दो चिट,
जिस में एक पर किसी के जाने की खबर,
और एक पर किसी के आने का संदेशा,
जमीन पर गिरा स्टेप्लर,
दिवार पर टेढ़ी तंगी तस्बीर,
आईने पे चढ़ी धूल की परत,
अधखुली किताबों की अलमारी,
फर्श पर पड़े स्याही के गहरे निशान,
किताबों के ढेर पर रखे चाय के पुराने कपों की मुस्कान,
दूसरे बिस्तर में पड़े मोबाईल चार्जरों का जाल,
टेबल में पड़ी लैपटाप,पेन और कई डाईरियां,
सामने दीवाल में रखी सरस्वती की मूर्ति,
चौतरफा लटकते मकड़ी के आशियाने,
ढूंढती हैं पवन कमरे में आने के बहाने,
आलमारी के ऊपर रखी अधखुली इत्र की शीशी,
दीवाल में लगी पुरानी फोटो याद दिलाती है किसी की,
बिस्तर में रखे धुले कुर्ते की नीची लुढ़की बाजू
फर्श पर लुढ़की इंडिया टुडे के आवरण में छपा कानून का तराजू,
कलमदान में वर्षों से पड़े कई बंद पेन,
इन सब के बीच मेरा सोचता अस्थिर चंचल मन,
ये है मेरे साफ़ कमरे की कहानी,
सिर्फ और सिर्फ मेरी जुबानी ||
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कुंवारी बिधवा



मिटटी,पत्थर,धूल इन्ही सब के बीच थी उस की ज़िन्दगी,
मजदूर जो थी वो...
दिन भर मेहनत करती,कभी किसी से कुछ ना कहती
न कोई आगे,न कोई पीछे, ना ही कोई दूर का कोई रिश्तेदार
होता भी क्यूँ? पैसा जो ना था उस के पास|
मैं छोटा था जब तब भी ज़िन्दगी उस की वैसे ही थी,
मेरी उम्र बढती गयी तब भी ज़िन्दगी उस की वैसे ही थी|
और आज मेरा बेटा छोटा है,पर उस की ज़िन्दगी में कोई बदलाव नहीं|
न कोई श्रृंगार,न कोई लालिमा,न कोई ख़ुशी,
साल इतने बीते पर साड़ी के रंग तक में भी कोई बदलाव नहीं,
ज़िन्दगी भर मेहनत,सिर्फ दो वक़्त की रोटी के लिए
ना उस के घर कोई आता, ना कहीं जाते ही देखा मैंने उसे आजतक,
न कभी बीमार पड़ती,न कभी उस की दिनचर्या रूकती
सुना था मैंने शादी के तीन रोज में ही पति चल बसा
क्या नाम था उस का आज तक मुझे तो ये भी नहीं पता
नाम की उसे जरुरत ही नहीं पड़ी|
क्या करती नाम का ?  
न किसी को उस से मतलब रहता,न ही उसे किसी से मतलब रहता
मैंने तो ताउम्र उस के संघर्ष को देखा
पर अब उस के काम को मेरा बेटा देखता है
एक दिन यूं ही पूछ लिया उस ने
पापा उस औरत का नाम क्या है???
जवाब मेरे पास नहीं था,
पर पता नहीं कैसे मुहँ से निकल पड़ा
कुंवारी बिधवा     
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